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| سَريتُ .. وما في الركْب ليَّ حبيب |
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| وقـد جَـنَّ لـيلٌ دامِسٌ، وَرهيب |
| ألا ليتَ شِعري .. هل يطيب تجُّول |
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| لمَن هو مثلي في الجموع iiغريب? |
| لكَمْ لِي رجاءٌ في اكتساب أحبَّة |
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| ولـكنْ شعورُ الآخرين iiمُريب |
| َبلْوتُ بني أمي، صِحابي، وعِترتي |
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| ولـكـنَّ ظـني في الأنام iiيَخيب! |
| أحاِول- جهْدي- الاندماجَ معَ الوَرى |
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| ولـكـنـهُ أمْـرٌ عـلَّـى عَصيب |
| وأحمِل في طيّات قلبي مَحبة |
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| بكُل سليِم الصدْر هِي تُهيب |
| فمَن لي بخِل يَغمُر الصدقُ iiقلبَه |
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| ومَن (1) لِندائي سامعٌ ومُجيب? |
| فـمـا خُنت يوماً مَن صفا لِيَّ iiودُّه |
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| وكَم كان مِن نفسي عليَّ رقيب!(2) |
| أِرقْت، وبالأسحار هاج تَنهُّدي |
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| وبيْن ضلوعي آهة ٌ،ولهيب |
| عرانِي ُوجومٌ، واكتئابٌ، وحَيْرة |
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| وصِرتُ كأني في العَراء َصليب |
| ألا إنـنا في الله- يا قومِ- إخوة |
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| متى ذا التَّجافي ينمحي، ويَغيب?! | |